इस मुख़्तसर मज्मुए में कैफ़ी आज़मी ने गुज़श्ता पच्चीस बरस का मुन्तख़ब2 कलाम शामिल किया है यानी एक तरह से यह उनका सिल्वर जुबली एडिशन है l पढ़नेवालों को शायद सबसे बड़ी तो इस मज्मुए के इख्तिसार3 से शिकायत होगी और तजस्सुस4 भी कि कौन-सी चीज़ इसमें शामिल होने से रह गयी है और क्यों ? ……… इसका जवाब तो कैफ़ी के पास ही होगा लेकिन इस इन्तिख़ाब5 से उनके ‘दिल का मुआमला’ ज़रूर खुल जाना चाहिए इसलिए कि उनके फ़िक्र-ओ-जज़्बे और उस्लूब-ओ-इज़्हार6 के सभी पहलू इस इशाअत7 में मौजूद है l
पच्चीस बरस यानी रुबा-सदी का अर्सा काफ़ी तवील8 अर्सा है जिसमे बच्चे जवान और जवान बूढ़े हो जाते हैं l इन मंजुमात9 का एक ख़ास्सा तो यही है कि इनमे वक़्त की परछाईं का सुराग़ लगाना मुश्किल है l लहजे की खनक, अल्फ़ाज़ का बाँकपन, रानाई-ए-ख़याल और वुफ़ूर-ए-जज़्ब-ओ-शौक़10 जिस पहलू से देखिये आज के कैफ़ी वही कैफ़ी हैं, जिन्हें हम और आप पच्चीस बरस से जानते हैं l अपने शाइराना मुक़ाम के एतिबार से अब वह जवान और नौजवान शुअरा11 की सफ़12 से निकल कर बुज़र्गान-ए-सुख़न के दायरे में शामिल हो चुके हैं, लेकिन बुज़ुर्गी के साथ ‘मुज़्महिल13 हो गए क़ुवा14 ग़ालिब’ का जो तसव्वुर वाबस्ता है उसका कोई शायबा15 कैफ़ी के कलाम में नहीं मिलता, सिर्फ इतना है कि अब इसमें आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल16 का बयान कम है और अंदेशा हाय दूरदराज़ से रग़बत17 ज़्यादा l
बुनियादी तौर से कैफ़ी की शाइरी का मिज़ाज लड़कपन से आशिक़ाना है लेकिन गिनाईयां-शाइरी18 के सतही तकल्लुफ़ात और मस्नूई-ज़ेबाइशों19 से कैफ़ी ने बहुत कम सरोकार रखा है l ग़म-ए-जानाँ का ज़िक्र हो कि ग़म-ए-दौराँ का बोसा-ए-लब की बात हो कि बोसा-ए-ज़ंजीर की, कैफ़ी बात हमेशा खरी करते हैं l जैसा सफ्फ़ाक20 और बेरहम ज़िन्दगी हमारे गिर्दोपेश मौजूद है उसी की बे-कम-ओ-कास्त21 मंज़रकशी कैफ़ी का मसलक-ए-शे’र22 है l न तल्ख़ी-ए-मज़मून से घबराते हैं न तल्ख़ी-ए-कलाम से गुरेज़ करते हैं, न ज़हर को क़न्द बनाकर पेश करने के क़ायल हैं न क़न्द की हक़ीक़त से इन्कारी और इसके बावजूद कैफ़ी की शाइरी ज़हर और क़न्द का मलगोबा नहीं है, बल्कि एक मुतवाज़िन23, ठहरे हुए, दर्दमन्द, फ़िक्रअंगेज़ और हस्सास24 नज़रीय:-ए-हयात-ओ-फ़न25 का बलीग़ इज़्हारी26 है जिसमे कोई झोल और कोई तज़ाद मुश्किल ही से दिखाई देगा l
तूल-ए-कलाम27 के न कैफ़ी क़ायल हैं न मैं हूँ l तआरूफ़ के वह मुह्ताज नहीं और तन्क़ीद28 के लिए दफ़्तर दरकार है l यह चन्द हरूफ़ तो महज़ इज़्हार-ए-ख़ुलूस के लिए लिख रहा हूँ इसलिए कि मेरी नज़र में कैफ़ी एक अज़ीज़ दोस्त होने के अलावा हमारे दौर के नुमाइंदा और बाकमाल29 शाइराना30 मुफ़स्सिरों31 में से हैं l
–फैज़ अहमद ‘फैज़’
1- भूमिका 2- संकलित 3- संक्षेप 4- जिज्ञासा 5- चयन 6- शैली और अभिव्यक्ति 7- प्रकाशन 8- लम्बा 9- कविताओं 10- भावना और लगन का आधिक्य 11- कवियों 12- पंक्ति 13- शिथिल 14- शक्तियां, इन्द्रियां 15- मिश्रण 16- बालों के लट के झुकाव की सजावट 17- लगाव 18- अनुस्वरवादी 19- कृत्रिम सज्जा 20- निष्ठुर 21- ज्यों की त्यों 22- शे’र का सिद्धांत 23- संतुलित 24- संवेदनशील 25- जीवन और कला का दृष्टिकोण 26- वयस्कता 27- लम्बी रचना 28- आलोचना 29- गुणवान 30- काव्यात्मक 31- व्याख्या करनेवाली
पेशलफ़्ज़ – फैज़ अहमद ‘फैज़’