अजीब आदमी था वो….
मोहब्बातों का गीत था
बग़ावतों का राग था
कभी वो सिर्फ़ फूल था
कभी वो सिर्फ़ आग था
अजीब आदमी था वो…
वो मुफ़लिसों से कहता था
कि दिन बदल भी सकते हैं
वो जाबिरों से कहता था
तुम्हारे सर पे सोने के जो ताज हैं
कभी पिघल भी सकते हैं
वो बंदिशों से कहता था
मैं तुमको तोड़ सकता हूँ
सहूलतों से कहता था
मैं तुमको छोड़ सकता हूँ
हवाओं से वो कहता था
मैं तुमको मोड़ सकता हूँ
वो ख्वाब से यह कहता था
के तुझको सच करूँगा मैं
वो आरज़ू से कहता था
मैं तेरा हमसफ़र हूँ
तेरे साथ ही चलूँगा मैं
तू चाहे जितनी डोर भी बनले अपनी मंज़िलें
कभी नहीं ताकूँगा मैं
वो ज़िंदगी से कहता था
कि तुझको मैं सजाऊंगा
तू मुझसे चाँद माँग ले
मैं चाँद लेके आऊंगा
वो आदमी से कहता था
कि आदमी से प्यार कर
उजाड़ रही हैं यह ज़मीन
कुछ इस का अब श्रंगार कर
अजीब आदमी था वो…
वो ज़िंदगी के सारे गम तमाम दुख
हर इक सितम से कहता था
मैं तुमसे जीत जाऊँगा
कि तुमको तो मिटा ही देगा एक रोज़ आदमी
भुला ही देगा यह जहाँ
मेरी अलग है दास्तान
वो आँखें जिनमें है सकत
वो होंठ जिन पे लफ्ज़ हैं
रहूँगा इनके दरमियाँ
कि जब मैं बीत जाऊँगा
अजीब आदमी था वो……
by Javed Akhtar
in remembrance of Kaifi Azmi