Dispersion – इन्तशार

Intishaar

Intishar

इन्तशार

कभी जमूद कभी सिर्फ इन्तशार-सा है,
जहाँ को अपनी तबाही का इन्तज़ार-सा है
मनु की मछली, न कश्ती ए-नूह और ये फ़ज़ा,
कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार सा है।
मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ,
कि आज दामने-यज़्दाँ भी तार-तार सा है
सजा-सँवार के जिसको हज़ार नाज़ किए,
उसी पे ख़ालिके़े-कोनैन शर्मसार-सा है।
तमाम जिस्म है बेदार, फि़क्र ख़ाबीदा,
दिमाग पिछले ज़माने की यादगार-सा है
सब अपने पाँव पे रख-रख के पाँव चलते हैं,
खुद अपने दोश पे हर आदमी सवार-सा है।
जिसे पुकारिए मिलता है इक खँडहर से जवाब,
जिसे भी देखिए माज़ी का इश्तहार-सा है
हुई तो कैसे बियावाँ में आके शाम हुई,
कि जो मज़ार यहाँ है मेरा मज़ार-सा है।
कोई तो सूद चुकाए, कोई तो जि़म्मा ले,
उस इंक़िलाब का, जो आज तक उधार सा है

Dispersion

Sometimes an obstruction, sometimes a dispersion
The world perhaps awaits its own destruction.
Nor Manu’s fish, nor Noah’s Ark, but just this dread,
Each drop seems to be a storm waiting to break ahead.
The body fully alert, the intellect unawake
The mind seems a shadow lost in memory’s wake.
We walk in each other’s footsteps without leaving a trace
Astride our own shoulders we move from place to place.
Ruins echo an answer, whoever we call
The past seems to hold each one in thrall.
The sun had to set in that very wilderness
Where the tomb hears to mine a strange likeness.
Someone must pay the price, someone must bear the blame
Of the revolution that even today is a borrowed claim.

Dispersion – इन्तशार