Savere Savere

सवेरे-सवेरे
झनकार - 1944 ई०

IPTA Convention, Agra's 85 - 1

न पूछो वह किस तरह आकर सिधारी

मिरी  सारी  हस्ती पे  छाकर सिधारी

वह पिछला पहर, वह जुदाई का लम्हा

सवेरे – सवेरे   रुला   कर   सिधारी

ख़रामां – ख़रामां  पशेमां – पशेमां

खुद अपने से भी छुप छुपाकर सिधारी

समेटे  गयी  चाँदनी बाम-ओ-दर से

सहर को शब-ए-ग़म  बनाकर सिधारी

निकल जाये जिस तरह गुन्चे से ख़ुशबू

यूँ  ही  मेरा  पहलू  बसाकर  सिधारी

महकती  हुई  शब  के  रंग  ज़माने

परीशाँ4  लटों  में  छुपाकर  सिधारी

वह पलकों की मस्ती, वह नज़रों की मस्ती

उन्ही   मस्तियों   में   नहाकर   सिधारी

थकी  सी  वह अंगलाड़ियाँ, वह जँभाई

सँभलकर  उठी,   लड़खड़ाकर सिधारी

वह  निखरी हुई सर-ओ-आरिज़ की रंगत

गुलाबी – गुलाबी     पिलाकर   सिधारी

अभी  तक  मिरी  उँगलियाँ काँपती है

जिधर  वो  निगाहें  झुककर  सिधारी

नज़र  उठ ही जाती है उस सिम्त ‘कैफ़ी’

कुछ  इस  तरह  दामन छुड़ाकर सिधारी

Savere Savere