शगुफ़्तगी का लताफ़त का शाहकार हो तुम
फ़क़त बहार नहीं हासिल-ए-बहार हो तुम
जो एक फूल में है क़ैद वो गुलिस्ताँ हो
जो इक कली में है पिन्हाँ वो लाला-ज़ार हो तुम
हलावातों की तमन्ना, मलाहतों की मुराद
ग़ुरूर कलियों का फूलों का इंकिसार हो तुम
जिसे तरंग में फ़ितरत ने गुनगुनाया है
वो भैरवीं हो, वो दीपक हो वो मल्हार हो तुम
तुम्हारे जिस्म में ख़्वाबीदा हैं हज़ारों राग
निगाह छेड़ती है जिस को वो सितार हो तुम
जिसे उठा न सकी जुस्तुजू वो मोती हो
जिसे न गूँध सकी आरज़ू वो हार हो तुम
जिसे न बूझ सका इश्क़ वो पहेली हो
जिसे समझ न सका प्यार भी वो प्यार हो तुम
ख़ुदा करे किसी दामन में जज़्ब हो न सकें
ये मेरे अश्क-ए-हसीं जिन से आश्कार हो तुम