Kaifi Azmi – Meri Awaaz Suno
गीत लिखना और ख़ास तौर पर फ़िल्मों के लिए गीत लिखना कुछ ऐसा अमल है जिसे उर्दू अदीब एक लंबे अरसे तक अपने स्तर से नीचे की चीज़ समझता रहा है| एक ज़माना था भी ऐसा जब फ़िल्मों में संवाद-लेखक (‘मुंशी’) और गीतकार सबसे घटिया दर्जे के जीव समझे जाते थे| इसीलिए अगर मरहूम ‘जोश’ मलीहाबादी फ़िल्म-लाइन को हमेशा के लिए ख़ैरबाद कहकर ‘सपनों’ की उस दुनिया से भाग आए तो इसका कारण आसानी से समझा जा सकता है | उतनी ही आसानी से यह बात भी समझी जा सकती है कि क्यों लोगों ने राजा मेहंदी अली ख़ान जैसे शायरों पर ‘नग्मानिगार’ का लेबिल चिपकाकर उनकी शायराना शख्सियत को एक सिरे से भुला दिया|
एक जमाना वह भी आया जब लखनऊ और दिल्ली की सड़कों पर फटे कपड़ो और फटी चप्पलों में मलबूस, हफ्ते में दो दिन भूखे रहनेवाले तरक्कीपसंद शायरों की एक जमात रोज़ी-रोटी की तलाश में आगे-पीछे बम्बई जा पहुँची |
इन्हीं तरक्कीपसंद नौजवान शायरों का कमाल यह रहा कि जहाँ तक गीत-कहानी-संवाद का सवाल है, उन्होंने फ़िल्म-जगत का नक्शा ही बदलकर रख दिया| नग्मगी के अलावा अछूते बोल और ऊँचे ख़यालात, भविष्यमुखी दृष्टि और इनसानी जिंदगी के उरूज को लेकर देखे जाने वाले सपने इन गीतकारों की विशेषता थे| सच तो यह है कि, इन गीतकारों के पहले या उनके बाद, गीत की विधा कभी इतनी ऊँचाई तक नहीं पहुँची जहाँ तक उसे इन शायरों के दस्ते-मुबारक ने पहुँचा दिया| इन शायरों और नगमानिगारों के योगदान को समझना हो तो आज के पतन के माहौल से मुकाबला करके समझिए जब पैसा बटोरने के लिए लालायित खोटे सिक्के खरे सिक्कों को बाज़ार से विस्थापित करने लगे हैं|
ऐसे ही अँधेरे, काले माहौल में ‘कैफ़ी’ जैसे शायरों के गीत जुगनुओं की तरह चमकते दिखाई देते हैं और , आप जानें, अल्लामा इक़बाल ने तो जुगनू को परवाने से लाख दर्जा बेहतर ठहराया है |
‘कैफ़ी’ के फ़िल्मी गीतों का मूल उर्दू पाठ ‘मेरी आवाज़ सुनो’ के उनवान से १९७४ में प्रकाशित हुआ था और तब से इसके अनेकों संस्करण सामने आ चुके हैं| बेशक दूसरे फ़िल्मी गीतकारों की तरह ‘कैफ़ी’ की भी सीमाएँ रही हैं| क्या कहना है, इसका निश्चय गीतकार नहीं करता, फ़िल्म के निर्माता और निर्देशक करते हैं|
लेकिन कैसे कहना है-इस बारे में शायर एक हद तक अपनी बात चला ही सकता है | फ़िल्मी गीत अधिकतर रोमानी होते हैं जो रोमांस के सुखों या दुखों का वर्णन होते हैं | लेकिन इस महदूद से दायरे में भी ‘कैफ़ी’ ने अपनी शायराना फितरत का, अदीब की दूर-रस निगाह का दामन नहीं छोड़ा | कागज के फूल, हकीकत, यहूदी की बेटी, गरम हवा और अर्थ जैसी फिल्मों के लिए ‘कैफ़ी’ ने जो गीत लिखे उनकी हैसियत किसी अदबपारे से कम नहीं, और यही बात फ़िल्म पाकीज़ा के उस अकेले गीत ‘चलते-चलते’ के बारे में कही जा सकती है जो ‘कैफ़ी’ के जादुबयान कलम की सौगात है | लेकिन ये तो गिनी चुनी मिसालें हैं; पूरा ख़जाना इस समय आपके हाथों में हैं |
क्या है आखिर ‘कैफ़ी’ के गीतों की विशेषता जो इनको दूसरे हज़ारों फ़िल्मी गीतों से अलग करती है ? बात बहुत सादा सी है | ‘कैफ़ी’ ने किसी की छत पर कबूतरों को गुटर-गूं नहीं कराया, किसी की शालू का टांका समोसे के आलू से नहीं भिड़ाया, किसी से ‘आ जा आ जा मोरे बालमा’ की पुकार भी नहीं लगवाई जो फ़िल्मी गीतकारों के लिए आसान से नुस्खा हैं | ‘कैफ़ी’ उन गीतकारों में से नहीं जो फख्र से कहते हैं कि उन्होंने एक दिन में २३ गीत लिखे | इसकी बजाय ‘कैफ़ी’ उन गीतकारों में एक हैं जो अपनी नज़्मों और गज़लों की तरह अपने गीतों को भी महीनों तक मांजते रहते हैं और इस तरह अपनी रूह की गहराइयों से जो चीज़ निकलकर पेश करते हैं वह तकरीबन २४ कैरट की होती हैं | इसलिए ‘कैफ़ी’ के गीत उन हज़ारों गीतों में नहीं हैं कि इधर सिनेमा हॉल से फ़िल्म का बैनर उतरा और उधर उसके गीत भी लोगों की ज़बान से उतर गए | वो उतरें भी कैसे, उन्हें तो फ़िल्म देखनेवालों और गीत सुननेवालों ने ‘कैफ़ी’ की नहीं, अपनी आवाज़ समझकर अपनी रूह की गहराईयों में बसा लिया है !
‘कैफ़ी’ के इन्हीं गीतों का तबर्रुक (प्रसाद) आज ‘मेरी आवाज़ सुनो’ के उनवान से हिंदी पाठक के हाथों में है | सलाम इस आवाज़ पर और आवाज़ देनेवालों पर, सलाम ‘कैफ़ी’ के हमनवाओं पर, और सलाम उस रवायत पर जिसने ‘कैफ़ी’ को ‘कैफ़ी’ बनाया !!
नरेश ‘नदीम’